हमारे प्रत्येक भाव, विचार और कर्म हमें निर्मित करते हैं।


एक कहानी है। किसी सर्कस में एक बूढ़ा कलाकार है, जो लकड़ी के तख्ते के सामने अपनी पत्नी को खड़ा कर उस पर छुरे फेंकता है। हर बार छुरा पत्नी के कंठ, कंधे, बांह या पांव को बिलकुल छूता हुआ लकड़ी में धंस जाता है। आधा इंच इधर-उधर कि उसके प्राण गये। इस खेल को दिखाते-दिखाते उसे तीस साल हो गये।

वह अपनी पत्नी से ऊब गया है और उसके दुष्ट और झगड़ालू स्वभाव के कारण उसके प्रति उसके मन में बहुत घृणा इकट्ठी हो गई है। एक दिन उसके व्यवहार से उसका मन इतना विषाक्त है कि वह उसकी हत्या के लिए निशाना लगाकर छुरा मारता है। उसने निशाना साध लिया है- ठीक हृदय और एक ही बार में सब समाप्त हो जाएगा- फिर, वह पूरी ताकत से छुरा फेंकता है। क्रोध और आवेश में उसकी आंखें बंद हो जाती हैं।

वह बंद आंखों में ही देखता है कि छुरा छाती में छिद गया है और खून के फव्वारे फूट पड़े हैं। उसकी पत्नी एक आह भर कर गिर पड़ी है। वह डरते-डरते आंखें खोलता है। पर, पाता है कि पत्नी तो अछूती खड़ी मुस्करा रही है। छुरा सदा कि भांति बदन को छूता हुआ निकल गया है। वह शेष छुरे भी ऐसे ही फेंकता है- क्रोध में, प्रतिशोध में, हत्या के लिये- लेकिन हर बार छुरे सदा कि भांति ही तख्ते में छिद जाते हैं।

वह अपने हाथों की ओर देखता है- असफलता में उसकी आंखों में आंसू आ जाते हैं और वह सोचता है कि इन हाथों को क्या हो गया? उसे पता नहीं कि वे इतने अभ्यस्त हो गये हैं कि अपनी ही कला के सामने पराजित हैं!


हम भी ऐसे ही अभ्यस्त हो जाते हैं- असत के लिये, अशुभ के लिये तब चाहकर भी शुभ और सुंदर का जन्म मुश्किल हो जाता है- अपने ही हाथों से हम स्वयं को रोज जकड़ते जाते हैं। और, जितनी हमारी जकड़न होती है, उतना ही सत्य दूर हो जाता है।
हमारे प्रत्येक भाव, विचार और कर्म हमें निर्मित करते हैं। उन सबका समग्र जोड़ ही हमारा होना है। इसलिए, जिसे सत्य के शिखर को छूना है, उसे ध्यान देना होगा कि वह अपने साथ ऐसे पत्थर तो नहीं बांध रहा है, जो कि जीवन को ऊपर नहीं, नीचे ले जाते हैं।

Blog Post By:- S Tarun Yadav

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